उन दिनों बापू यरवदा
जेल में थे।
जेल में ही
उनका ऑपरेशन हुआ
था। ऑपरेशन होने
के बाद वह
बहुत कमजोर हो
गए थे। चलने-फिरने में भी
उनको कठिनाई होती
थी। वह हमेशा
खड़ाऊं पहनते थे। जेल
में भी वह
खड़ाऊं पहनकर ही गए
थे। गांधीजी जो
खड़ाऊं पहनकर जेल गए
थे वे टूट
गई थीं और
जेल से मिलने
वाली खड़ाऊं अत्यंत
भारी थीं, जिन्हें
पहनकर उन्हें तकलीफ
होती थी। ऑपरेशन
होने के बाद
तो उन्हें पहनकर
चलना और भी
मुश्किल हो गया
था। एक रात
को उन्हें खड़ाऊं
पहनकर चलने में
अत्यंत तकलीफ का सामना
करना पड़ा।
उनकी पीड़ा को उनके
आश्रम के सहयोगी
ने देखा तो
बहुत दु:खी
हुआ। वह वहां
उनसे मिलने आया
था। उसने अगले
दिन चुपके से
खड़ाऊं की हल्की
जोड़ी लाकर वहां
पर रख दी
और जेल से
मिली भारी खड़ाऊं
वहां से हटा
दी। सुबह होने
पर गांधीजी जब
खड़ाऊं पहनने के लिए
खड़े हुए तो
उन्होंने अपनी खड़ाऊं
की तलाश शुरू
कर दी। जब
वे कहीं नहीं
मिलीं तो उनकी
नजर नई खड़ाऊं
पर पड़ी। गांधी
जी ने उन्हें
पहना नहीं और
बोले, 'पता नहीं
कौन अपनी खड़ाऊं
यहां छोड़ गया
है।' संयोग से
उस समय वह
आश्रमवासी भी वहीं
था। वह उनके
पास आकर बोला,
'बापू, ये नई
खड़ाऊं मैं आपके
लिए ही लाया
हूं।
आपको अपनी खड़ाऊं
पहनने में तकलीफ
होती थीं। मुझसे
आपकी तकलीफ देखी
नहीं गई। इसलिए
मैंने उन्हें यहां
से हटा दीं।'
इस पर गांधीजी
बोले, 'लगता है,
आश्रम के चारों
तरफ रुपयों की
बरसात हो रही
है। शायद इसलिए
तुम्हें नई खड़ाऊं
लाने की सूझी
है। क्या तुम
जानते हो कि
जो लोग आश्रम
को रुपए भेजते
हैं, उन्हें विश्वास
है कि उनकी
एक-एक पाई
का सदुपयोग होता
होगा। लेकिन यह
तो उनके साथ
विश्वासघात हुआ।' यह सुनकर
आश्रमवासी चुप हो
गया। बापू ने
कहा कि आश्रम
का एक रुपया
भी व्यर्थ के
कार्यों पर खर्च
न किया जाए।
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